तेरा निर्मल रूप अनूप है नही हाड मास की काया
१ - तू नही पंच नही तन नही इन्द्रिया बुधि मन है
तू तो सतचित आनंद घन है क्यूँ भुला अपने रूप को
कर चेत फिरे भरमाया
२ - नाम रूप मिथा जग सारा तू है सत जगत से न्यारा
सकल जगत तेरा पसरा क्यूँ पड़ा भ्रम के कूप में
सतगुरु ने ये समझाया
३ - निराकार निर्गुण अविनासी चेतन अमल सहज सुख राशी
अखंड निरंतर सदा उदासी तू व्यापक भ्रम स्वरूप है
तुझमे नही मोह और माया
४ - लेकर पार भ्रम का शरना ऐसा ध्यान निरंतर धरना
हरी कृष्ण फेर होवे ना मरना वही अनोखा भूप है
जिसने ये परम पद पाया
१ - तू नही पंच नही तन नही इन्द्रिया बुधि मन है
तू तो सतचित आनंद घन है क्यूँ भुला अपने रूप को
कर चेत फिरे भरमाया
२ - नाम रूप मिथा जग सारा तू है सत जगत से न्यारा
सकल जगत तेरा पसरा क्यूँ पड़ा भ्रम के कूप में
सतगुरु ने ये समझाया
३ - निराकार निर्गुण अविनासी चेतन अमल सहज सुख राशी
अखंड निरंतर सदा उदासी तू व्यापक भ्रम स्वरूप है
तुझमे नही मोह और माया
४ - लेकर पार भ्रम का शरना ऐसा ध्यान निरंतर धरना
हरी कृष्ण फेर होवे ना मरना वही अनोखा भूप है
जिसने ये परम पद पाया
No comments:
Post a Comment